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जातीय राजनीति का चक्रव्यूह

बिहार, जो देश के सबसे राजनीतिक रूप से जागरूक राज्यों में से एक है, जातीय राजनीति का एक गहरा इतिहास समेटे हुए है। 1970 के दशक में पिछड़े वर्गों के उत्थान के साथ जो सामाजिक बदलाव शुरू हुआ था, वह समय के साथ जातीय गठबंधनों के साथ स्थिर होता दिखाई दिया। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के नेतृत्व में यह विचार स्थायित्व की ओर बढ़ा, लेकिन अब यह बदलाव एक और नए दौर में प्रवेश कर चुका है। भाजपा के बढ़ते प्रभाव ने बिहार की जातिगत राजनीति में एक और बदलाव की लहर पैदा कर दी है।

बिहार में युवा मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक है और उनकी प्राथमिकता जातीय राजनीति से आगे बढ़कर विकास, शिक्षा और रोजगार जैसी जरूरतें हैं।

जन सुराज का नया दृष्टिकोण

प्रशांत किशोर, एक राजनीतिक रणनीतिकार और जन सुराज के संस्थापक, इस पुरानी जातीय राजनीति को चुनौती देने का प्रयास कर रहे हैं। उनका दृष्टिकोण जाति-आधारित राजनीति के बजाय बिहार के समग्र विकास पर केंद्रित है। प्रशांत किशोर का मानना है कि जाति और धर्म के संकीर्ण दायरों से हटकर राज्य को एक नई दिशा में ले जाने की जरूरत है।

इसके बावजूद, प्रशांत किशोर भी जाति की जटिल संरचना को पूरी तरह नजरअंदाज नहीं कर सकते। हाल ही के उपचुनाव में उन्होंने जातीय समीकरणों का उपयोग कर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। बेलागंज में यादव उम्मीदवारों के बीच मुकाबले में मुस्लिम समुदाय से मोहम्मद अमजद को, तरारी में राजपूत उम्मीदवार, इमामगंज में पासवान और रामगढ़ में कुशवाहा उम्मीदवारों को उतारना इसका उदाहरण है। प्रशांत किशोर इस दलील के साथ इसे सही ठहराते हैं कि हर उम्मीदवार की अपनी जाति होती है, लेकिन उनकी कोशिश जातीय बंधनों से हटकर बिहार की असल समस्याओं पर ध्यान देने की है।

जातीय राजनीति से बाहर आने की चुनौतियाँ

बिहार में भाजपा और महागठबंधन दोनों ने जातिगत समीकरणों के सहारे सत्ता हासिल करने के लिए अपने-अपने गठजोड़ तैयार किए हैं। जहां भाजपा ने जाति आधारित समर्थन को विकास और राष्ट्रवाद के साथ जोड़ा है, वहीं महागठबंधन ने समाजवादी विचारधारा के नाम पर पारंपरिक जातीय आधार को बनाए रखने का प्रयास किया है।

प्रशांत किशोर की जन सुराज इस जातिवादी राजनीति से निकलने की दिशा में एक नए विचार को सामने रखती है। वे मानते हैं कि बिहार के युवाओं को शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों की तरफ ले जाना जरूरी है। हालांकि, जातीय राजनीति से अलग दिशा में जाना बिहार के लिए एक कठिन चुनौती है, क्योंकि बिहार की राजनीति में जातीय पहचान गहराई से जमी हुई है।

प्रशांत किशोर: बिहार की नई राजनीतिक सोच

बिहार का भविष्य और प्रशांत किशोर की चुनौती

बिहार की राजनीति में जातिवादी संरचना इतनी गहरी है कि उसे तोड़ने के लिए समय और एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी।

बिहार में जातीय राजनीति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि किसी भी नेता के लिए इसे खत्म करना एक कठिन काम है। प्रशांत किशोर का जन सुराज जाति आधारित राजनीति से ऊपर उठने की कोशिश है, लेकिन क्या बिहार इसे अपनाएगा? आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रशांत किशोर जातीय राजनीति से अलग बिहार के विकास के अपने वादों को निभा पाएंगे या वे भी इस चक्रव्यूह में फंसे रह जाएंगे।

प्रशांत किशोर: बिहार की नई राजनीतिक सोच

जाति में जनता उलझी है, नेता नहीं।

जातीय राजनीति बिहार की राजनीति में गहराई से जमी हुई है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस उलझन में जनता फंसी हुई है, नेता नहीं। जाति के आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करना एक पुराना और प्रभावी राजनीतिक हथकंडा है, जिससे नेता अपनी सत्ता बनाए रखते हैं। बिहार में प्रमुख नेता जैसे लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने जातिगत समीकरणों का इस्तेमाल कर राज्य में अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत की है। यह रणनीति भले ही उन्हें सत्ता में बनाए रखती है, लेकिन इसके चलते राज्य का विकास और जनता के असल मुद्दे, जैसे शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य, पीछे छूट जाते हैं।

प्रशांत किशोर, जो अपने जन सुराज अभियान के माध्यम से जातिवादी राजनीति के खिलाफ एक नया संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं, का कहना है कि जनता जातिगत पहचान में उलझी हुई है, जबकि नेता सत्ता के खेल में इस विभाजन का लाभ उठा रहे हैं। उनका मानना है कि बिहार जैसे राज्यों में जनता को जाति से ऊपर उठकर विकास और प्रगति के मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए। किशोर यह संदेश देकर राज्य में एक नई राजनीतिक सोच को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमें जाति नहीं, बल्कि नीति और विकास प्राथमिकता हो​

जातिवाद का यह खेल बिहार की राजनीति में गहरी जड़ें जमा चुका है। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रशांत किशोर अपनी जन सुराज पहल से इसे बदल पाएंगे, या फिर जनता और नेता की यह जकड़न आगे भी बनी रहेगी।